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Sunday, July 11, 2010

याद है मुझे

वो गावं का बड़ा सा पोखरा
और चारो और हरे-भरे खेत
वो सूखी- नदी ,
जिसके किनारों पर बिखरी ढेर सारी रेत
दूर से ही नजर आती वो पहाड़ी
शिखर से जिसके आती-जाती
रवि और शशि की सवारी ।
चारों और दूर तक फैला
वो स्याह सा आसमान ,
और दूर कहीं दिखता छितिज ,
जहाँ मानो भू और गगन हो जाते सामान।
मिटटी की वो सोंधी सुगंध
प्रफुलित कर देती जो तन-मन,
और इन सभी के बिच हमेशा से रहता आया हूँ ,
बिछड़ कर अपनों से कैसा लगता है?
महसूस कर रहा हूँ अब मैं।
सब कुछ तो छोड़ आया पीछे
अपना वो अस्तित्व,अपना इतिहास
और न जाने क्या-क्या !
पर विश्वास है मुझे ,
मिट कर एक दिन
हमेशा के लिए मिल जाऊंगा उनमे ,
बनकर कर उन सभी का एक अंग
चलता रहूँगा युगों तक मैं संग-संग।


Md. Samim
Dr. M.G.R University,
Chennai
10/07/2010





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